कील चुभोता रहा सवेरा

कील चुभोता रहा सवेरा

✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट 

सदा वासना की चौखट पर 
विश्वासों की छत है ढहती 
नदियों को जब छलते सागर
अश्कों की धारा है बहती।
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घने तिमिर से धूमिल जीवन
चिंताओं का बढ़ा पुलिंदा
घायल आभा की पगडंडी
आशाएँ भी रहीं न जिंदा
कैद सिसकियाँ तड़पीं ऐसे 
बिना परों के उड़े परिंदा
हुई आस्था भी है बौनी
होती दरपन की जब निंदा
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नैतिकता की लाज लुट रही
सच्चाई अब पीड़ा सहती
नदियों को जब छलते सागर
अश्कों की धारा है बहती।
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घाव वेदना के हैं उर में
राहों को शूलों ने घेरा
मँडराते खतरे के बादल 
उखड़ गया सपनों का डेरा
हुई विषैली आज हवा भी
लगा रही घर- बाहर फेरा
काली रातें रहीं डराती
कील चुभोता रहा सवेरा
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ओझल है मुस्कान अधर से
विपदा दूर नहीं है रहती
नदियों को जब छलते सागर
अश्कों की धारा है बहती
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अंतर्मन में छिड़ा द्वंद है
मैली क्यों गंगा को करते
घूम रहे कलयुग के कौरव
चीर- हरण से कब वे डरते
सोच टँगी है दीवारों पर
भाव प्रेम के लगते मरते
फिर से लो अवतार राम तुम
सीता देखीं आहें भरते 
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फँसे कंठ में भेद दबे जो
चीख- चीख कर बेबस कहती
नदियों को जब छलते सागर
अश्कों की धारा है बहती।
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 रचनाकार ✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
 'कुमुद -निवास',बरेली (उत्तर प्रदेश)
 मोबा.- 98379 44187

(प्रकाशित एवं प्रसारित रचना)

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5 Comments

Rupesh Kumar

18-Feb-2024 07:15 PM

बहुत खूब

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Shnaya

18-Feb-2024 07:17 AM

Nice one

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Mohammed urooj khan

17-Feb-2024 03:03 PM

👌🏾👌🏾

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